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अनुत्पन्नत्वमेवास्तु हेतुर्न प्राच्यदूषणात् ।
हानेऽपि हेतुफलयोः स्फुरद्रूपं क्व गच्छतु ॥ २३५ ॥
तस्माद्धर्मः कल्पितैरेव रूपैः
शून्यः सर्वो भासभाग्नैव कश्चित् ।
शून्यः सर्वो भासभाग्नैव कश्चित् ।
चित्राद्वैतं चित्रचक्रं तदेतद्
भाव्यं भाव्यैरप्रपञ्चं शिवाय ॥ २३६ ॥
भाव्यं भाव्यैरप्रपञ्चं शिवाय ॥ २३६ ॥
साक्षात्कारो न कामं भवति भवभृतां यावदस्या दशाया
हेयोपादेयसाध्यप्रभवपरिचयस्तावदस्त्यप्रकम्पः ।
हेयोपादेयसाध्यप्रभवपरिचयस्तावदस्त्यप्रकम्पः ।
तस्मात् संभारयुग्माभ्यसनपरिणतौ मूर्तिचेतोगुणाभ्यां
योगी योगीश्वरोऽसौ निरुपमनिलये लब्धबोधिः प्रसिद्धः ॥ २३७ ॥
योगी योगीश्वरोऽसौ निरुपमनिलये लब्धबोधिः प्रसिद्धः ॥ २३७ ॥
यथा सुवर्ण गुणरूपसंपदः
प्रकर्षपर्यन्तमुपेतमक्षयम् ।
प्रकर्षपर्यन्तमुपेतमक्षयम् ।
विमुक्तमालीक्यकलङ्कशङ्कया
तथैव बौद्धं वपुरस्तु देहिनाम् ॥ २३८ ॥
तथैव बौद्धं वपुरस्तु देहिनाम् ॥ २३८ ॥
॥ इति चित्राद्वैतनिर्णयश्चतुर्थः परिच्छेदः ॥
॥ साकारसंग्रहसूत्रं समाप्तमिति ॥
॥ कृतिरियं महापण्डिताचार्यज्ञानश्रीमित्रपादानाम् ॥
संशोधनं संयोजनं च
अत्र शुद्धप्रयोगा एव प्रदर्शिताः । ते संश्लिष्टस्थलेषु योजनीयाः
ग्रन्थभागे | |||||
१७, १९, २१, २३ -शीर्षकेषु ०ध्यायेऽन्वयाधि० | ३१२ | २६ | दिग्नागस्य प्रमाणसमुच्चये | ||
४७ | ६ | तिलकचित्रक० | ३१५ | १० | व्यस्तो हेतोरनाश्रयः । |
८० | ६ | स्वरूपसाक्षात्क० | प्र. वा. ४. ९१ | ||
८९ | अन्तिमपं० रत्न० निब० ८१, ८८ | ३१६ | ९-१० | मध्ये प्र. वा. १. १८ | |
९४ | ५ | द्रः श्लो. वा. पृः २९९ | ३२७ | २४ | तादृशदशाविशेषस्य |
१०६ | १ | व्याप्यव्यापकभावौ | ३५९ | १९ | अलीकमन्यत्वेऽपीदं व्या० |
११३ | ३ | चेदित्युक्तम् । तत्र | ३६३ | १२ | शक्त्यभावान्न |
१३७ | १६ | ग्राह्याध्यवसेय० | ३६४ | २४ | प्रकाशमानत्वमबाध० |
१४४ | ८ | सोऽयं नयः | ३६५ | ७ | नासत्प्रकाशवपुषा |
१६५ | १६ | ०दर्शनमौत्तर० | १५ | ०नुरोधे न प्रासङ्गिकं | |
१६९ | २२ | च स्थितिः ॥ | ३७१ | २५ | नीलस्वभावभिदुर० |
कार्यकारणभावसिद्धौ | ३७२ | १ | न नीलस्य प्रकाशश्चेत् | ||
१८४ | २ | कवलयितुर्नेह | साहसं किमतः परम् । | ||
१९१ | ४ | एकज्ञानासं० | ३८६ | ४ | चेतोनिराकृति० |
१९२ | ४ | प्राक् न पश्चा० | ३८९ | १७ | नागार्जुनस्य |
२०८ | १८ | दृष्टाविवेति | ४०३ | २२ | प्रतिपातिना |
प्रमाणविनिश्चये | ४०४ | १२ | तथतारम्बने | ||
२२६ | १९ | शालित्वादिस्थितेः | ४०५ | २ | विगमं याति |
२२९ | ५ | द्रःसाकारसिद्धौ पृः४४३ | ४३९ | २०-२१ | तन्मात्रे नावतिष्ठते ॥ |
२३७ | पादटीका | शतानन्दस्त्विति० | त्रिंशिकायाम् | ||
२५० | १८ | कार्य० | ४५८ | १०, १९ | कुतो भिनत्त्विति पृः ४५६ |
२७४ | २-१ | काश्चिदेकव्यवहार० | ४६३ | २ | न साकृतौ चेतसि |
२८८ | १२ | खर्वादिभेदस्यैव | १२ | न तत्त्वसंवृत्यनुगस्य | |
२९६ | ७ | सर्वकार्यप्रकाराणां | ४७१ | १९ | सा मुघा ॥ |
३०९ | १४ | विपक्षबाधकवशादि त्यादि पृः २९३ |
बो. अ. ९. २२-३ |