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अथ तृतीयः परिच्छेदः ।

मंगलाचरण व प्रतिज्ञा

सिद्धं महासिद्धिसुखैकहेतुं श्रीवर्धमानं जिनवर्द्धमानम् ।
नत्वा प्रवक्ष्यामि यथोपदेशाच्छरीरमाद्यं खलु संविदानम् ॥ १ ॥

भावार्थः--The Hindi commentary was not digitized.

अस्थि, संधि, आदिककी गणना

अस्थीन्यथ प्रस्फुटसंधयश्च स्नायुश्शिराविस्तृतमांसपेश्य ।
संख्याक्रममात्त्रित्रिनवप्रतीतं सप्तापि पंच प्रवदेच्छतानि ॥ २ ॥

भावार्थः--The Hindi commentary was not digitized.

धमनी आदिकी गणना ।

नाभेः समंतादिह विंशतिश्च तिर्यक्चतस्त्रश्च धमन्य उक्ताः ।
नित्यं तथा षोडश कंदराणि रिक्तां च कूर्चानि षडेवमाहुः ॥ ३ ॥

भावार्थः--The Hindi commentary was not digitized.

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  1. यहां तीनसौ हड्डी, और तीन सौ संधि बतलायी गयी हैं । लेकिन जितनी हड्डी हैं उतनी ही संधि कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि दो हड्डियों के जुडने पर एक संधि होती है । इसलिये अस्थि संख्या से, संधियोंकी संख्या कम होना स्वाभाविक है । सुश्रुत में भी ३०० अस्थि २१० संधि बतलायी ग+ई हैं । यद्यपि हमें प्राप्त तीन प्रतियोंमे भी त्रि त्रि नवप्रतीतं यही पाठ मिलता है । तो भी यह पाठ अशुद्ध मालूम होता है । यह लिपिकारोंका दोष मालूम होता है ।

  2. --सुश्रुतसंहिता में नाभिप्रभवाणां धमनीनमूर्ध्वगा दश दश चाधोगामिन्यश्चत- स्रःस्तिर्यग्गाः इस प्रकार चव्वीस धमनियोंका वर्णन हैं । इसलिये समंतात् शब्द का अर्थ चारों तरफ, ऐसा होनेपर भी यहां ऊपर और नीचे इतना ही ग्रहण करना चाहिये । इसी आशय को आचार्य प्रवरने स्वयं, तिर्यक्चतस्त्रश्च धमन्य उक्ताः यह लिखकर व्यक्त किया है । अन्यथा समंतात् से तिर्यक् भी ग्रहण हो जाता है ।