‘जय जय जय श्रीमन्भोज प्रभाति विभावरी वद वद वद श्रव्यं विद्वन्निदं ह्यवधीयते ।
शृणु शृणु शृणु त्वद्वत्सूर्योऽनुरज्यति मण्डलं नहि नहि नहि क्ष्मामार्तण्डः क्षणेन विरज्यते ॥ २३९ ॥’