अंजनाभरणगतविषलक्षण.

विकृतिरथेंद्रियेषु परितापनमश्रुगति--।
र्विषवहुलांजनेन भवति प्रबलांध्यमपि ॥
विषनिहतप्रभाणि न विभांत्यखिलाभरणा--।
न्यतिविदहन्त्यरूंष्यपि भवंति तदाश्रयतः ॥ १८ ॥

भावार्थः--The Hindi commentary was not digitized.

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विषमभिवीक्ष्य तत्क्षणविरागविलोचनता ।
भवति चकोरनामविहगश्च तथा म्रियते ॥
पुनरपि जीवनिजीवक इति क्षितिमुल्लिखति ।
पृषतगणोऽति रौति सहसैव मयूरवरः ॥ १९ ॥

भावार्थः--The Hindi commentary was not digitized.

  1. इद्रियोंमें विकृति नस्य व धूमप्रयोग से होती है । क्यों कि अंजन के प्रयोगसे केवल आंखोमें विकार उत्पन्न होता है अन्य इंद्रियो में नहीं । ग्रंथांतर में भी लिखा है ।

    नस्यधूमगते लिंगमिंद्रियाणां तु वैकृतम् ।